Advertisement Here

हिन्दी कविता

अचल क्षितिज

अचल क्षितिज से रहे हो कान्हा
मेरे मानस नभ में तुम
अमर प्रतीक्षा रही सदा ही
मैं धरती और अंबर तुम कान्हा…
मैं धरती और अंबर तुम
……
सूनी वंशी की तानें हैं
आहत प्रीत कि आज है धुन कान्हा…
आहत प्रीत की आज है धुन
सूर मेरे हो गए क्लांत अब
विवश राग अवगुण्ठित तुम कान्हा
विवश राग अवगुण्ठित तुम
अचल क्षितिज से रहे हो कान्हा
मेरे मानस नभ में तुम ….
…….
स्वप्न सिंधु के पार खड़े हो
अविचल सागर दीप से तुम कान्हा
अविचल सागर दीप से तुम
युग युग की आकुल कुल पंछी मैं
श्वासों में पीड़ा को बुन कान्हा
श्वासों में पीड़ा को बुन
अचल क्षितिज से रहे हो कान्हा
मेरे मानस नभ में तुम
मेरे मानस नभ में तुम …..

सुरेखा सिसौदिया (इंदौर म. प्र.)

Back to top button