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Inovation: कृषि कॉलेज के बच्चे बस्तर की इन आदिवासी महिलाओं से सीख रहे खेती की देसी तकनीक

धान की 300 किस्मों का किया संरक्षण

कृषि कॉलेज के बच्चे बस्तर की इन आदिवासी महिलाएं से सीखते है कि वे किस तरह धान की देसी किस्मों को बचा रही

समूह के पास 105 से ज्यादा धान की देसी किस्मों के बीज है, जिसे वे निःशुल्क बांटती है

कोण्डागांव। कोंडागांव के गोलावंड में आदिवासी महिलाओं का एक समूह परंपरगत जैविक खेती करने के लिए जाना जाता है। यहां तक कि उनसे जानकारी लेने के लिए कृषि कार्यो पर रिसर्च कर रही संस्थाएं और कृषि कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थी भी संपर्क करते हैं और यह जानने का प्रयास करहे है कि आखिर किस तरह यह महिलाएं धान की देसी किस्मों को सरंक्षित कर रही है और इनके पास इतने बीज किस तरह सरंक्षित रहते है कि यह अन्य लोगों को उसे बांटती है।

गोलावंड में खेती का कार्य करने वालेे रानी दुगार्वती महिला समूह के बारे में जब आसपास के लोगों से चर्चा की तो उन्होंने बताया कि कुछ महिलाएं कई सालों से इस कार्य को कर रही है। गोलावंड के अरविंद कोराम बताते है कि यह कार्य पहले यहां के बुजुर्ग करते थे और इन बुजुर्गो ने इस कार्य का नाम धरोहर रखा और नाम के अनुरूप ही यह लोग कार्य करते थे, लेकिन अब यह कार्य महिलाएं कर रही है। वे कई लोगों को धान के इन बीजों को बांटती भी है।

जब इन महिलाओं के कार्य को देखने के लिए हम उनके खेतों में पहुंचे तो हमने देखा कि ढ़ाई एकड़ के क्षेत्रफल में छोटी-छोटी क्यारी बनी है और इन्हीं क्यारियों में धान के छोटे-छोटे पौधे लगे हैं। जब समूह की कुछ महिलाओं से बात की तो उन्होंने बताया कि हम इसी क्यारी में बीज लगाते है और पौधे निकलने पर इसके बीजों को दूसरे किसानों को बांटते है। इससे न केवल बीजों का संरक्षण हो रहा है, बल्कि इन्हें कुछ मात्रा में बिक्री करने से खेती करने का खर्चा भी निकल जाता है।

समूह की अध्यक्ष अमरीका नेताम कहती हैं कि हम रासायनिक खाद से अपनी धरती को क्यों बरबार्द करें, जब देसी तकनीक और जैविक खाद के उपयोग से अच्छी फसल मिल सकती है तो हम रासायनिक खाद का उपयोग क्यों करें । धान की देसी स्स्मों को सरंक्षित करने का कार्य हम इसलिए भी कर रहे है कि ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए यह किसमें सरंक्षित रहे। हम धान की 150 से ज्यादा देसी किस्मों को जानते है, क्योंकि हम इस कार्य को कर रहे है।

धरोहर को देख तो हमने उठाया बीडा

समूह की सदस्यों ने बताया कि गांव के कुछ बुजुर्गो का समूह धान की इन देसी किस्मों को सरंक्षित करता था और इसके लिए ही समूह ने साल 1995 को धरोहर संस्था बनाई। अब इस काम को आगे बढ़ाने का कार्य हम महिलाओं ने ले लिया और हम लोग उनके ही मागर्दशर्न में काम कर रहे है। धरोहर संस्था के संस्थापक सदस्य शिवनाथ यादव कहते हैं कि हमने 300 से ज्यादा धान की किस्मों का संरक्षण किया था, जिसमें से 157 से ज्यादा वैरायटी कृषि महाविद्यालय जगदलपुर को सौंप दी, ताकि वहां पढ़ने वाले विद्याथिर्यों को सीखने व समझने का मौका मिल सके। वही वतर्मान में हमारे पास 105 वैरायटी संरक्षित हैं, जिसे हर साल उगाते भी है।

धान की इन किस्मों को रोपते है

समूह के पास जीरा फूल, दुबराज, लोक्टी माटी, बाक्टी चुडी, हल्दी चुड़ी, रत्न चूडी, गंगा बारू, भैसपाट, कदमफूल, के साथ ही रेड राईस में गुडकी धान व ब्लैक राईस में सुपर एक्सल की किस्मों को रोपते है। धरोहर संस्था को कृषि मंत्रालय भारत सरकार, छत्तीसगढ़ पयार्वरण संरक्षण मंडल, वनवासी संत गहिरा गुरूजी महाराज द्वारा छत्तीसगढ़ पयार्वरण पुरस्कार जैव विविधता के संरक्षण व धान की नैसगिर्क प्रजातियों के संरक्षण के लिए सम्मानित भी किया गया है। इसके साथ ही देश की विभिन्न संस्थाओं के द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है।

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