Chaitra Navratri: आदिकाल से गांव-गांव में होती है माता शीतला सहित सतबहिनी की पूजा
भिलाई. छत्तीसगढ़ में नवरात्रि में मां शीतला की पूजा अराधना करने की परंपरा रही है। ऐसा कोई गांव नहीं है जहां माता शीतला का मंदिर या देवालय न हो। अमूमन हर गांव में माता शीतला का मंदिर तालाब के पार में ही होता है। छत्तीसगढ़ी लोक परंपराओं के जानकार सुशील भोले कहते हैं कि यहां आदिवासी परंपरा के तहत माता शीतला के साथ सतबहिनी (सात देवी बहनें) की पूजा करने का विधान रहा है। अब माता का मंदिर पक्के बनाए जाते हैं, पहले कच्चे होते थे। बोलचाल में इसे माता देवाला या माता देवालय कहा जाता है।
सुशील भोले बताते हैं कि जिस तरह आज मां दुर्गा के नौ रूपों की पूजा होती है, उसी तरह पहले छत्तीसगढ़ में आदिवासी परंपरा के अनुसार सतबहिनी की पूजा का विधान रहा है। सात बहनों में शीतला, दुर्गा, काली, चंडी, पलमति, बड़ी माता (चमरिया) और भनमति। स्कंध पुराण में इसकी अर्चना का स्त्रोत शीतलाष्टक के रूप में है। स्थानीय स्तर पर देवियों के नाम मावली माता, महामाया, आंगारमोती माता आदि नामों से भी पुकारा जाता है। चमारिया माता को परमेश्वरी माता या बड़ी माता और शीतला माता तो छोटी माता भी कहते हैं। माता शीतला को बहुत लोग माता सीता का ही रूप मानते हैं, तो बहुत लोग माता पार्वती का रूप। आदिवासी संस्कृति में आदिकाल से भगवान शिव की पूजा का विधान रहा है। आदिवासी शिवजी को बूढ़ा देवा या बड़ा देव भी कहते हैं यानी सबसे बड़े देव महादेव। इस लिहाज से माता शीतला को पार्वती का रूप कहना तर्कसंगत जान पड़ता है।
जोत जंवारा का विसर्जन दसवें दिन हो
कालांतर में अब काफी बदलाव आया है। सुशील भोले कहते हैं कि नवरात्रि नौ दिनों का होता है। लेकिन आजकल पूरे नौ दिन तक पूजा नहीं होती। अष्टमी को हवन के बाद नौवें दिन विसर्जन किया जाता है। जबकि नौ दिनों तक पूजा करने के बाद दसवें दिन विसर्जन होना चाहिए।
तालाब पार में ही होता है माता का मंदिर
माता शीतला का मंदिर या देवालय तालाब के पार में होने की वजह सुशील भोले बताते हैं कि शीतला माता जल की देवी है। शांत करने वाली देवी है। ताप को दूर करती है। शीतला मंदिर में ग्रामीण आज भी सामूहिक रूप से जोत जंवारा बोते हैं। पूरे नौ दिनों तक माता सेवा (जस गायन) के साथ अराधना की जाती है। मंदिर में पूजा की कमान गांव का बैगा संभालता है। खास बात यह है कि शीतला मंदिर में महिलाओं को सिर ढंककर प्रवेश करना वर्जित है। सिर से पल्लू हटाकर ही महिलाएं प्रवेश करती हैं।
छत्तीसगढ़ में जुड़वास की परंपरा आज भी कायम है। यह आषाढ़ में होता है। आषाढ़ में शीतला अष्टमी भी मनाया जाता है। आषाढ़ में सोमवार या गुरुवार के दिन ही जड़वास निकाला जाता है। कहीं-कहीं बोलचाल में इसे पहुचानी भी कहते हैं। हर घर से तेल हल्दी, नारियल, दाल चावल के साथ मीठे पकवान माता को अर्पित किया जाता है। जब किसी तो बड़ी या छोटी माता (चेचक) का प्रकोप होता है तो शीतला मंदिर में तेल, हल्दी व नीम के पत्ते अर्पित किए जाते हैं। इससे पीड़ित व्यक्ति का ताप कम होता है, उसे आराम मिलता है। इसके अलावा गांव को प्राकृतिक प्रकोप से महफूज रखने के लिए भी शीतला माता की आराधना की जाती है।
आज से शुरू होगी आदिशक्ति की अराधना : आदिशक्ति की अराधना का पर्व नवरात्रि 9 अप्रैल से शुरू हो रहा है। नौ दिनों तक मां दुर्गा की अलग-अलग रूपों की पूजा अराधना होगी। देवी मंदिरों में जोत जवारा बोने के साथ अखंड ज्योति प्रज्जवलित किए जाएंगे, जो पूरी नौ रात्रि तक प्रज्जवलित रहेगी। लोग भी जोत जलाते हैं जिसे मनोकामाना ज्योति कलश कहते हैं। यह किसी मनोवांछित फल की कामना से या मनोवांछित फल की पूर्ति होने पर या फिर अपनी श्रद्धा से प्रज्जवलित किए जाते हैं।