भरथरी और गोदना के साथ लोककला को सहेज रही दीप्ति

रायपुर. कहते है कला इंसान के अंदर की सुंदरता को लोगों के सामने लाने का जरिया होती है और जब यह चित्रों से जुड़ती है तो जीवन कई रंगों से सराबोर हो जाता है। बिलासपुर की दीप्ति ओगरे भी कुछ इसी कड़ी का हिस्सा हैं। दीप्ति को आदिवासी लोक कला और संस्कृति से कुछ ऐसा जुड़ाव है कि वो पूरे बस्तर में घूम-घूम कर आदिवासियों की विलुप्त होती चित्रकला को सहेज रही हैं।
प्रदेश की पहली भरथरी गायिका सुरूजबाई खांडे जो अब इस दुनिया में नहीं है उनकी भरथरी कला को सहेजने के लिए दीप्ति ने सुरूज ट्रस्ट बनाया। अब इस ट्रस्ट के जरिए दीप्ति आदिवासी कला के साथ ही लोककलाओं के संरक्षण और संवर्धन का कार्य कर रही है, जबकि वो आज तक सुरूज बाई से मिली भी नहीं है।
दीप्ति कहती है कि चित्रकला में मेरी अभिरुचि है। आदिवासियों की विलुप्त होती गोदना कला के साथ ही अन्य लोककला को भी उन्हीं से सीखती हूं। बस्तर से जुड़ने के बाद यहां का तूमा, सीसल, लकड़ी, पत्थर, बांस, लौह, डोकरा व मुरिया पेंटिंग से भी जुड़ाव होने लगा। अब मैं पुरानी गोदना डिजाइन को संरक्षित करने के लिए चित्र बनाती हूं। जब समय मिलता है निकल पड़ती हूं इसे जानने और सीखने। रविवार ही ऐसा दिन होता है जब अपने पसंद के कार्य करने का अवसर मिलता है।
यह है भरथरी कला
भरथरी गायन छत्तीसगढ़ की एक महत्वपूर्ण लोककला है, जो राजा भर्तृहरि की जीवनगाथा को दर्शाती है और आध्यात्मिक मूल्यों को बढ़ावा देती है। इस गायन में, आमतौर पर “योगी” कहलाने वाले लोग, सांरण या एकतारा जैसे वाद्य यंत्रों के साथ गीत गाते हैं।