हिन्दी कविता
भ्रम
हम भ्रमों को जीते हैं
बिछाते हैं, ओढते हैं,
टूट जाए भी कभी
फिर जोड लेते हैं
अंतर्मन नित ढोता जाता है
पल पल मर कर भी
जीते रहने का भ्रम
अनगिन दुखों की स्याह छांव में
होता है ,खुश रहने का भ्रम
पशुता को भीतर संजोए
है हमको मानव होने का भ्रम
दुनिया के इस मकड़जाल में
सबके अपने होने का भ्रम
शाश्वत सत्यो को नकार कर
स्वप्न पूर्ण करने का भ्रम
जंजीरे हैं वर्जनाओं की
तब भी स्वतंत्र होने का भ्रम
रीते से मन को तो होता
सचमुच भर जाने का भ्रम
निशदिन अनगिन भ्रमछाया में चलता जाता निज जीवन
यदा-कदा कर देता विचलित
यह तम सा भ्रम
यह भ्रम सा तम
सुरेखा सिसौदिया (इंदौर म. प्र.)